अथर्व महाकाव्य का विश्लेषणात्मक अध्ययन
Description
“अधर्वा में वही वन हूँ कृति को यद्यपि मैंने महाकविता कहा है परंतु समीक्षकों ने इसे प्रायः महाकाव्य के रूप में भी देखा है। विजय रजक ने अपने शोध में महाकाव्य के शास्त्रीय लक्षणों के आधार पर इसे आलोचित करने का प्रयास किया है, मुझे लगता है कि आलोचक को अन्य औजार भी जुटाने चाहिए जिससे नए शिल्प की वर्तमान सृजनात्मकता को बेहतर ढंग से रूपाकृत किया जा सके। विजय ने इस कृति पर जो बातें की हैं ये रुचिकर, ध्यानाकर्षक तथा जिज्ञासा बढ़ने वालीः शोध का एक उद्देश्य यह भी होता ही है। में विजय को यशस्वी जीवन के लिए शुभकामनाएँ देता हूँ।
डॉ० आनन्द कुमार सिंह
डॉ० आनन्द कुमार सिंह के चर्चित महाकाव्य ‘अथर्वा में वही वन हूँ’ पर केन्द्रित श्री विजय रजक की शोधपरक पुस्तक ‘अथर्वा महाकाव्य का विश्लेषणात्मक अध्ययन’ का प्रकाशन स्वागत योग्य है क्योंकि उन्होंने आज की युवा पीढ़ी से इतर भारतमुखी चिंतन को अपने शोध के लिए चुना। प्राचीन भारतीय भारतीय जीवन पद्धति को हिंदी साहित्य के जरिये पुनर्जीवित करने में श्री रजक जैसे शोधकर्ताओं की महती भूमिका होगी ऐसा मेरा विश्वास है। यह जानकार भी प्रसन्नता होती है कि श्री आनन्द के अथर्वा महाकाव्य पर शोध करने के लिए देश के कई विश्वविद्यालयों में शोधार्थी पंजीबद्ध हुए हैं। इस महाकाव्य के माध्यम से हिंदी साहित्य में एक नयी प्रवृति का सूत्रपात हुआ है और में इसके जारी रहने की कामना करता हूँ।
डॉ० लक्ष्मण सिंह गोरास्या
‘अथर्वा महाकाव्य का विश्लेषणात्मक अध्ययन’ शीर्षक पुस्तक बिजय रजक की एक महत्वपूर्ण रचना है। यह पुस्तक कुल पाँच अध्यायों में विभक्त है। इसके अंतर्गत लेखक ने भारतीय महाकाव्य खासकर हिंदी महाकाव्य की व्यापक परंपरा में ‘अथर्वा’ के महत्व को रेखांकित करने का प्रयास किया है। साथ ही कवि की भाषा और शिल्प का बहुत ही व्यवहारिक विश्लेषण प्रस्तुत किया है। इस पुस्तक के अध्ययनोपरांत इतना अवश्य कहा जा सकता है कि ‘अथर्वा’ के अर्थ को खोलने में पुस्तक काफी हद तक सफल है। अतः ‘अथर्वा’ की रचना-प्रक्रिया और उनके महत्व को समझने के लिए इस पुस्तक का अध्ययन अवश्य किया जाना चाहिए।
डॉ० काली चरण झा”
About The Author
वर्तमान विश्वविद्यालय के अंतर्गत एम.फिल की उपाधि के लिए लिखा गया लघु शोध प्रबंध अथवा महाकाव्य का विश्लेषणात्मक अध्ययन’ शीर्षक पुस्तक विजय रजक का एक महत्वपूर्ण प्रयास है। कवि आनन्द जी ने पौराणिक चरित्रों के माध्यम से धर्म, इतिहास, दर्शन, आध्यात्म और राष्ट्रीय चेतना का जो संधान अपने अधर्वा महाकाव्य में किया है, उनको विश्लेषित, व्याख्यायित करने का प्रयास यह पुस्तक करती है। जीवन का स्वणिर्म उद्घोष बुद्धि और हृदय के समुनन्यन से ही सम्भव है, ऐसे समय में इस तरह के महाकाव्यों के शोध की आवश्यकता बढ़ जाती है। में विजय रजक को
उनके इस प्रयत्न पर साधुवाद देती हूँ।
डॉ० सत्या उपाध्याय
बाहर भटकाव है, अन्दर ठहराव है। ‘अथर्वा’ महाकाव्य अपने ही आनन्दस्वरूप में, चैतन्य में ठहरने की कलातीत कृति है। समीम से असीम की ओर प्रस्थान करके अनहद में विश्राम करना, साधना में रमना आनन्द जी का महाकाव्य ‘अथर्वा’ की नाभकीय धुरी है। बिजय रजक का यह शोध कार्य उस कृति के महाकाव्यात्मक स्वरुप की एक समीक्षात्मक पहचान करने का एक सुन्दर और साहसिक प्रयत्न है।
डॉ० शशि कुमार शर्मा
आनन्द कुमार सिंह ने जैसा जीवन जिया है, उन्हीं जीवनानुभवों को ‘अथर्वा’ में व्यक्त किया है। इसी कृति पर आधारित बिजय रजक का शोध कार्य में राष्ट्रीय चेतना, प्रकृति चित्रण, लोकतांत्रिक मूल्य, दलित चेतना, स्त्री अस्मिता बोध, अरविन्द दर्शन का महत्वपूर्ण आख्यान है-‘अथर्वा महाकाव्य का विश्लेषणात्मक अध्ययन’।
डॉ० रामप्रवेश रजक
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